भारत में हिंदी भाषा

प्रभुत्व की तलाश
भारत, एक ऐसा राष्ट्र जो अपनी सांस्कृतिक और भाषाई विविधता के लिए विश्वभर में जाना जाता है, में हिंदी भाषा की स्थिति एक विरोधाभास प्रस्तुत करती है। यह विडंबना ही है कि देश की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा, जिसे अक्सर राष्ट्रभाषा के रूप में देखा जाता है, आज अपने ही घर में अपनी पहचान और प्रभुत्व के लिए संघर्ष कर रही है।
एक विशाल जनसमूह, जो अपनी दैनिक जरूरतों और आपसी संवाद के लिए हिंदी का सहजता से उपयोग करता है, इस भाषा की जीवंतता का प्रमाण है। इसके विपरीत, शिक्षा, वाणिज्य, और प्रशासन जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अंग्रेजी का बढ़ता वर्चस्व हिंदी के लिए एक गंभीर चुनौती खड़ी कर रहा है। उच्च शिक्षा के संस्थानों में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा और प्रबंधन जैसे प्रमुख विषयों की शिक्षा का माध्यम मुख्य रूप से अंग्रेजी होने के कारण, हिंदी भाषी छात्रों को एक भाषाई बाधा का सामना करना पड़ता है, जिससे प्रतिस्पर्धा में उनके पिछड़ने की आशंका बनी रहती है।
शहरी परिवेश में, विशेष रूप से युवा पीढ़ी के बीच, अंग्रेजी को प्रगति, आधुनिकता और वैश्विक जुड़ाव का प्रतीक माना जाता है। अभिभावक अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में दाखिला दिलाने को प्राथमिकता देते हैं, इस विश्वास के साथ कि यह उनके भविष्य के लिए बेहतर अवसर सुनिश्चित करेगा। इस मानसिकता के प्रसार के कारण, घरों में भी हिंदी के प्रयोग में धीरे-धीरे कमी आ रही है, और बच्चे अपनी मातृभाषा से दूर होते जा रहे हैं।
सरकारी स्तर पर भी हिंदी को बढ़ावा देने के प्रयासों में एक सुसंगत और मजबूत इच्छाशक्ति का अभाव दिखता है। त्रिभाषा सूत्र जैसी महत्वपूर्ण नीतियां अक्सर कार्यान्वयन के स्तर पर कमजोर पड़ जाती हैं या राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण प्रभावी रूप से लागू नहीं हो पातीं। विभिन्न सरकारी विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों में कामकाज की मुख्य भाषा के रूप में अंग्रेजी का प्रभुत्व प्रभुत्व निर्बाध रूप से जारी है,
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